उत्तराखंड की पावन भूमि ने न केवल वीरों को जन्म दिया है, बल्कि ऐसी स्त्रियों को भी जन्म दिया है जिन्होंने अपने त्याग, प्रेम और आस्था से इतिहास में अमिट छाप छोड़ी है। ऐसी ही एक अमर गाथा है – रामी बौराणी की, जो आज भी गढ़वाल की वादियों में लोकगीतों के रूप में जीवित है।
गढ़वाल के एक छोटे से गांव में रामी अपनी वृद्ध सास के साथ रहती थी। उसका पति बीरु, किसी राजा की सेना में वीर सैनिक के रूप में नियुक्त था। एक दिन युद्ध की पुकार पर बीरु को घर छोड़ना पड़ा और वह लंबे समय तक लौट कर नहीं आया। समय की रेत फिसलती गई – एक साल, दो साल, तीन, चार, पांच … यहां तक कि बारह साल बीत गए, पर बीरु का कोई पता न चला।
रामी और उसकी सास को फिर भी उसके लौटने की उम्मीद थी। सास घर संभालती और रामी खेतों में दिन-रात मेहनत करती। हर शाम जब सूरज पहाड़ों के पीछे ढलता, एक बार बीरु की याद उसे आ ही जाती और मन उदासी में डूब जाता।
एक दिन की बात है। गर्मी सिर चढ़ चुकी थी, फिर भी रामी खेत में अकेली काम में जुटी थी, तभी किसी ने पीछे से आवाज दी – “अलख निरंजन!”
रामी ने मुड़कर देखा, एक जोगी खड़ा था – कमंडल और चिमटा लिए। उसने पूछा, “हे सुंदरी तुम कौन हो?”
रामी ने विनम्रता से उत्तर दिया, “मैं रामी हूँ, रावतों के खानदान से। मेरे पति बहुत वर्षों से परदेश में हैं। हम मां-बेटी की तरह दो जन ही रहते हैं।”
जोगी ने व्यंग्य से कहा, “इतने साल हो गए, अब तक नहीं आया तो अब क्यों आएगा? ऐसे पुरुष की प्रतीक्षा में जीवन क्यों व्यर्थ कर रही हो?”
रामी को यह बात नागवार गुज़री। उसने जोगी की बात का कोई जवाब नहीं दिया।
इसके बाद वह जोगी फिर बोला – “भूल जाओ उस निर्मोही को, कौन जाने जिन्दा भी है कि नहीं। तुम धूप में क्यों खेत में काम कर रही है, चलो मेरे साथ पेड़ की छाया में बैठो अपना मन हल्का कर लो…” इतना कहते-कहते वह रामी को छूने की कोशिश करने लगा।
जोगी की हरकत से रामी क्रोध में आ गई, बोली – “दूर हट, निर्लज्ज! क्या तुम्हें मेरी मांग का सिंदूर और गले का मंगलसूत्र नहीं दिखाई देता? तू साधु है या ढोंगी?”
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पर जोगी फिर भी नहीं रुका और कुछ-कुछ कहने लगा जिसके बाद रामी ने कुदाल उठाकर चेतावनी दी – “अगर एक शब्द और कहा तो इसी कुदाल से तेरी मुंडी फोड़ दूंगी!” रामी का तेज देख वह जोगी वहां से चुपचाप खिसक गया… लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई।
वह सीधा रामी के घर जा पहुंचा और उसकी सास से बोला – “माई, भिक्षा दे। तेरी मनोकामना पूरी होगी। जिसके इंतजार में तू तड़प रही है, वह शीघ्र ही लौट आएगा।”
जोगी की ऐसी बात सुनकर बूढ़ी सास श्रद्धा से जोगी को घर में ले आई और भोजन की तैयारी करने लगी। तभी रामी भी लौट आई। उसे जैसे ही जोगी दिखा, वह फिर भड़क उठी – “तू यहां भी पहुंच गया? अब तो हद ही हो गई!”
सास ने बीच-बचाव किया, बोली, “बेटी, तू अपने दुःख में थोड़ी चिड़चिड़ी हो गई है। माफ कर दे इस साधु को।”
फिर जब सास ने जोगी को पत्तल में खाना परोसा, जोगी ने अजीब सी मांग की – “माई, मैं तुम्हारे बेटे के समान हूँ। मुझे वही बर्तन दो जिसमें तुम अपने लाड़ले को खाना देती थी।”
अब रामी का धैर्य टूट चुका था। वह दौड़ कर कुदाल उठाने लगी, तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बदल दिया। जोगी ने तुरंत अपना वेश उतार दिया और माँ के चरणों में गिर पड़ा – “माँ, मुझे पहचानो। मैं ही तुम्हारा बेटा बीरु हूँ!”
रामी स्तब्ध रह गई। बीरु ने रामी की ओर देखा और कहा – “रामी, मुझे क्षमा करना। मैंने तुम्हारे पतिव्रत धर्म की परीक्षा ली। आज तुमने अपने आचरण से साबित कर दिया कि सच्चा प्रेम क्या होता है। तुम्हारी निष्ठा और धर्म के प्रति समर्पण युगों तक प्रेरणा देगा।”
उस दिन न केवल रामी का इंतजार खत्म हुआ, बल्कि उसकी पतिव्रता की गाथा भी अमर हो गई। आज भी गढ़वाल की वादियों में जब स्त्रियों की असाधारण निष्ठा और प्रेम की बात होती है, तो रामी बौराणी का नाम गर्व से लिया जाता है। यह कहानी सिर्फ़ प्रेम की नहीं, बल्कि आस्था, धैर्य, और आत्मबल की जीवंत मिसाल है। इसे जितना बांटा जाए, उतनी ही पीढ़ियों तक इसकी प्रेरणा पहुँचेगी।