भारत की मिट्टी ने अनगिनत प्रेरणादायी लोगों को जन्म दिया है, लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं जो पीढ़ियों तक लोगों को प्रेरित करती हैं। ऐसी ही एक कहानी है कर्नाटक की सालूमारदा थिमक्का की — एक ऐसी महिला जिनकी संतानें पेड़ हैं और जिन्होंने प्रकृति से अपने मातृत्व को जोड़ा है।
साधारण जीवन से असाधारण पर्यावरण प्रेम तक
गुब्बी तालुक के एक छोटे से गाँव में जन्मी थिमक्का को औपचारिक शिक्षा का अवसर नहीं मिला। बहुत कम उम्र में उन्हें मज़दूरी करनी पड़ी, और सिर्फ़ 12 वर्ष की उम्र में उनकी शादी श्री बिक्कला चिक्कय्या से हो गई। इस जोड़े की कोई संतान नहीं थी, और यही जीवन की कमी उन्हें एक अद्वितीय उद्देश्य की ओर ले गई — पेड़ों को अपनी संतान बनाना।
‘सालूमार’ की उपाधि और वृक्षों से मातृत्व का रिश्ता
थिमक्का और उनके पति ने अपने गाँव की सड़कों के किनारे बरगद के पेड़ लगाने का निर्णय लिया। पहले साल उन्होंने 10 पेड़ लगाए। इसके बाद हर साल यह संख्या बढ़ती गई और धीरे-धीरे उन्होंने 400 से अधिक पेड़ों की देखभाल की। इन प्रयासों के लिए उन्हें ‘सालूमारदा’ (जिसका अर्थ है ‘पेड़ों की पंक्ति’) की उपाधि दी गई।
8,000 पेड़, 80 साल, और अटूट समर्पण
थिमक्का के लिए पेड़ सिर्फ़ हरियाली का प्रतीक नहीं थे, वे उनके बच्चे थे। उन्होंने अपने सीमित संसाधनों से न सिर्फ़ पेड़ लगाए, बल्कि काँटेदार झाड़ियों से उन्हें सुरक्षा भी दी। पानी की कमी, सूखा, और आर्थिक कठिनाइयाँ — इन सभी ने उन्हें कभी नहीं रोका। उन्होंने 80 वर्षों में 8,000 से अधिक पेड़ लगाए और हर एक पेड़ को अपने बच्चे की तरह पाला।
चुनौतियाँ, संघर्ष और चिक्कैया का साथ
उनके पति चिक्कय्या इस प्रयास में कंधे से कंधा मिलाकर चले। एक ने गड्ढे खोदे, तो दूसरी ने पौधों को पानी दिया। 1991 में जब चिक्कय्या का निधन हुआ, तब भी थिमक्का रुकी नहींं। बल्कि उन्होंने इस काम को और ज़्यादा संकल्प के साथ जारी रखा।
राजमार्ग विरोध और पर्यावरण की जीत
2019 में, सरकार द्वारा शुरू की गई एक राजमार्ग परियोजना उनके लगाए पेड़ों को ख़तरे में डाल रही थी। लेकिन थिमक्का ने विरोध किया और अंततः सरकार को वैकल्पिक रास्ता अपनाना पड़ा। यह घटना दिखाती है कि एक व्यक्ति की आवाज़ कितनी प्रभावशाली हो सकती है।
सम्मान, पुरस्कार और पर्यावरणीय चेतना की विरासत
थिमक्का के कार्यों को राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया। उन्हें 2019 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया और कई अन्य पर्यावरणीय पुरस्कार भी प्राप्त हुए। लेकिन उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार उन पेड़ों की छाया और ऑक्सीजन है जो उन्होंने दुनिया को दी है।
प्रेरणा जो आज भी जीवित है
आज, थिमक्का युवा पीढ़ी के लिए एक उदाहरण हैं। उन्होंने सिखाया कि सच्ची सेवा न तो शिक्षा की मोहताज होती है, न ही संसाधनों की। सिर्फ़ एक मजबूत संकल्प और प्रेम की भावना से भी हम दुनिया को बेहतर बना सकते हैं।
निष्कर्ष:
सालूमारदा थिमक्का की कहानी उस हर व्यक्ति को प्रेरणा देती है जो यह मानता है कि अकेला इंसान कुछ नहीं कर सकता। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक व्यक्ति भी लाखों ज़िंदगियों को प्रभावित कर सकता है — अगर उसके भीतर सच्चा समर्पण हो।
उनकी हरियाली भरी विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए न सिर्फ़ ऑक्सीजन दे रही है, बल्कि एक ऐसा दृष्टिकोण भी दे रही है जो प्रकृति और मातृत्व के बीच गहरा संबंध स्थापित करता है।