इस बार का लोकसभा चुनाव कई मामलों में उल्लेखनीय रहा है। चुनाव नतीजों से गठबंधन सरकार पुनः अस्तित्व में आ गयी है और यह कहना सही होगा कि इस चुनाव ने सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों को निराश नहीं किया है। सत्ताधारी गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में पुनः सरकार बनाने जा रही है। तो दूसरी तरफ विपक्ष भी सत्ता का लोभ संवरण कर रही है। यद्यपि विपक्ष के मनसूबे शायद ही धरातल पर उतरे, लेकिन राजनीति संभावनाओँ का खेल हैं कुछ भी संभव हो सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी अकेले अपने दम पर अपनी सरकार बनाने की स्तिथि में नहीं हैं और उसे अपने गठबंधन के सहयोगी जनता दल युनाईटेड एवं तेलुगु देशम पार्टी पर निर्भर रहना होगा और इस बदले राजनीति माहौल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रणनीतिक कौशल का भी इम्तहान होगा क्योंकि इससे पहले वर्ष 2014 एवं 2019 के चुनाव के बाद उन्होंने पूर्ण बहुमत की सरकार चलायी है और गुजरात में भी श्री नरेंद्र मोदी तीन बार मुख्य मंत्री रहे और तीनों बार उनके पास गुजरात विधान सभा में पूर्ण बहुमत था।
इस चुनाव के निणर्य को प्रभावित करने में कई कारण जिम्मेदार हैं। यदि भारतीय जनता पार्टी के रणनीति का आंकलन किया जाये तो यह स्पष्ट होता है कि उसके द्वारा अबकी बार 400 पार का नारा कई माईनों में उसी के विरुद्ध गया है। इससे एकतरफ भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों एवं कार्यकर्ताओं को यह विश्वास हो गया कि उनकी पार्टी पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत रही है। इस कारण उन्होंने क्षेत्र में जाकर पसीना बहाना वाजिब नहीं समझा । सबसे अहम बात यह है कि इस नारे ने विपक्षीय पार्टियों को भारतीय जनता पार्टी को घेरने के लिए कई अहम मुद्दें दे दिये। विपक्षीय पार्टियों को सबसे अहम मुद्दा हाथ लग गया कि भाजपा सत्ता में आने पर सविंधान बदल देगी क्योंकि सत्ता में आने के लिए जब 272 सीटें ही जरुरी हैं तो भाजपा को 400 सीटों की क्या जरुरत पड़ गयी। विपक्षीय पार्टियों ने आरोप लगाया कि भाजपा सत्ता में आने पर संविधान बदलने के साथ–साथ आरक्षण भी हटा देगी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी एवं सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने यह मुद्दा जोर शोर से उठाया। नतीजन दलीत एवं पिछड़ी जातियों को डर लगने लगा कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद उनकों मिल रही आरक्षण की सुविधा बंद हो जाएगी और इस कारण इस वर्ग ने विशेषकर उत्तर प्रदेश में विपक्षीय गठबंधन को अपना पूरा सहयोग दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्थिति को समझ लिया था लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। उन्होंने अपने भाषण में साफ–साफ कहा कि उनके रहते हुए अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति एवं पिछले वर्ग के लिए दिया जा रहा आरक्षण यथावत जारी रहेगा और उनके रहते हुए इस पर किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं किया जायेगा। एक अहम कारण यह भी रहा कि भाजपा राम मंदिर के निर्माण के बाद आश्वस्त हो गयी थी कि यह मुद्दा ही उसको सत्ता की दहलीज तक ले जायेगा, जो सही साबित नही हुआ। इसके अलावा भाजपा आला कमान के द्वारा कई अहम मुद्दों को नज़र अंदाज कर दिया गया था।
जहां तक उत्तर प्रदेश का संबंध है भाजपा ने अपने उम्मीदवारों को बदलने में कोताही बर्ती और पार्टी से इतर अन्य लोगों को भी अपना उम्मीदवार बनाया। क्योंकि उत्तर प्रदेश में लगभग 15 वर्तमान सांसदों के खिलाफ स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं में रोष था और उन्होंनें अपनी भावनाओं से आलाकमान को अवगत भी करा दिया था। इसके अलावा, जहां पार्टी के द्वारा बाहर के लोगों को उम्मीदवार बनाया गया वहां भी स्थानीय भाजपा नेताओं एवं कार्यकर्ताओं नें दिलोंजान से काम नहीं किया।
उत्तर प्रदेश के बारे में एक अहम सवाल यह भी उभरा कि चुनाव के दौरान इस बात का प्रचार किया गया कि चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री आदित्य नाथ योगी को हटा दिया जायेगा, इससे स्थानीय भाजपा कार्यकर्ता एवं जनता में चुनाव के प्रति उत्साह कम हो गया। उत्तर प्रदेश में राजपूत वर्ग पहले से ही भाजपा से नाऱाज चल रहा था क्योंकि पार्टी ने इस जाति के कम उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था। मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के बारे में फैलायी गयी उक्त अवधारणा ने आग में घी का काम किया और राजपूतों ने बीजेपी से अपनी दूरी बना ली। यद्यपि राजपूत समाज ने भाजपा के विरुद्ध गोलबंदी शुरु से ही कर दी थी और कई जगह बैठक करके अपने गुस्से का इज़हार भी किया परन्तु भाजपा आलाकमान ने इस मुद्दे को गमभीरता से नहीं लिया। नतीजन राजपूत समाज ने भाजपा के स्थान पर विपक्षीय पार्टियों को अपना सहयोग दिया या वे लोग चुनाव के दिन घरों में बैठे रहे और मतदान नहीं किया। राजपूतों की यह नाऱाजगी उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं हरियाणा में भाजपा को महंगी साबित हुई।
इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में भाजपा स्थानीय जातियों एवं समूहों से बेहतर तालमेल करने में असफल रही, नतीजन कई क्षेत्रों में भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में स्थानीय कारकों का बेहतर इस्तेमाल किया गया और सपा के मुखिया अखिलेश यादव ने क्षेत्रीय जातियों/ समूहों को ध्यान में रखकर अपने उम्मीदवार तय किये। श्री अखिलेश यादव ने यादव और मुसलिम उम्मीदवारों से ज्यादा अन्य पिछड़ी जातियों एवं दलितो को उम्मीदवार बनाया, इसका उनकों चुनाव में लाभ मिला। उत्तर प्रदेश के संबंध में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि श्री अखिलेश यादव ने बेरोजगारी, महंगाई एवं आरक्षण पर अपना अभियान केन्द्रित किया और अतं तक वह इनहीं मुददों को उठाते रहे। साथ मे अखिलेश यादव भाजपा के द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित चुनाव को भी यदाकदा उठाया क्योंकि भाजपा के पोस्टरों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही फोटो रहते थे, इस पर श्री अखिलेश यादव कटाक्ष करते थे कि भाजपा की डबल इंजन की सरकार में से एक इंजन लुढ़क चुका है और दूसरा लुढ़कने वाला है। उनका आशय भाजपा की प्रचार सामग्री में से मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ की फोटो नदारद होने की तरफ था। इसने भी मतदाताओँ को कुछ हद तक प्रभावित किया। यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि विपक्षीय गठबंधन ने अपना चुनाव अभियान मुख्यतया आरक्षण, संविधान में बदलाव, महंगाई एवं बेरोजगारी पर ही केंद्रित रखा जबकि भाजपा चुनावी मुद्दे बदलती रही।
कांग्रेस के द्वारा गरीब महिलाओं को एक लाख रुपया प्रतिवर्ष आर्थिक सहायता देने का वायदा भी कारगर साबित हुआ। इस चुनाव में महिलाओं ने कांग्रेस को अच्छा समर्थन दिया जबकि 2019 और 2014 के चुनाव में महिलाओं का रुझान भाजपा की तरफ था। इस चुनाव से यह बात भी साबित हुई कि मुस्लिम समुदाय ने एकमुश्त भाजपा के विरोध मे मतदान किया जबकि हिन्दू लोग जातियों एवं समूहों में बटे रहे। यहां तक कि केन्द्र सरकार द्वारा दी जा रही आर्थिक सहायता एवं गरीबों के लिए बनाये गए घर एवं शौचालय भी उनकों भाजपा की तरफ मोड़ने में सफल नहीं हुए।
केन्द्र सरकार और भाजपा शासित राज्य सरकारों के द्वारा किए गये विकास के कार्य भी मतदाताओँ को लुभाने में विफल रहे। इस चुनाव ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि अकेले विकास के मुद्दे पर चुनाव जीतना संभव नहीं है। इस संदंर्भ में यह कहा जा सकता है कि ज्यादात्तर मतदाताओँ ने विकास के स्थान पर अपनी जाति एवं संप्रदाय को अहमियत दी और मतदाताओँ पर उनके व्यक्तिगत हित ज्यादा प्रभावी रहे । लब्बोलबाब यह है कि इस चुनाव में परिवारवाद, भ्रष्टाचार चुनावी मुद्दे नही बन पाये। इस कारण भी भारतीय जनता पार्टी को यथोचित समर्थन नहीं प्राप्त हो पाया।
इस चुनाव की एक अहम विशेषता यह भी रही कि विपक्षीय पार्टियों ने राम मंदिर एवं धारा 370 को चुनाव में मुद्दा बनाने से परहेज किया। अलबत्ता, विपक्षीय पार्टियों ने रोज़ी रोटी, रोजगार एवं आरक्षण पर ही ज्यादा ज़ोर दिया। यहां तक कि विपक्षीय पार्टियों ने मुस्लिम समुदाय से भी उन्हीं स्थानों पर उम्मीदवार बनाये जहां पर मुस्लिम बहुसंख्यक थे। अन्य स्थानों पर उन्होंने मुस्लिमों को उम्मीदवार बनाने से परहेज किया। इस प्रकार की नीति अपनाने से विपक्षीय पार्टियां हिन्दुओं को भी अपने पाले में लाने में सफल हुए।
इस चुनाव में क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां अपना दबदबा कायम करने में सफल हुईँ हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, पश्चिमी बंगाल में टीएमसी, आंध्र प्रदेश में तेलुगू देशम और तमिलनाडु में डीएमके मजबूती के साथ उभरे हैं। उड़ीसा में बीजू जनता दल एवं तेलंगना में भारत राष्ट्र समिति अपवाद स्वरुप रहे हैं और इन दोनो क्षेत्रीय दलों को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है। महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव ठाकरे) एवं एनसीपी शरद पंवार को सहानुभूति मिली है और यह दोनो पार्टियां, इस चुनाव में ज्यादा ताकतवर बनकर उभरे हैं। जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसे इस चुनाव से नई संजीवनी मिली है और इस चुनाव ने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अपना आधार बढ़ाने का अवसर प्रदान किया है।
भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरी है। इसके लिए प्रधान नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व काफी हद तक जिम्मेदार है। यद्यपि प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली ने विपक्षीय पार्टियों को इस चुनाव का सबसे अहम मुद्दा भी दिया। उनकी कार्यशैली की वजह से विपक्षीय पार्टियों ने चुनाव में यह प्रचार किया कि यदि श्री नरेंद्र मोदी चुनाव जीत गए तो देश में पुनः चुनाव नहीं होंगे और भारतीय प्रजातंत्र खतरे में पड़ जायेगा। विपक्ष की इस मुहिम ने भी मतदाताओँ में अपना प्रभाव छोड़ा।