गुजरात में सागर में गोमती नदी की विलय स्थली के तट पर अवस्थित है द्वारकाधीश मंदिर (Jagat Mandir Dwarkadhish). यह सनातन संस्कृति के चार प्रमुख धामों में से एक है। भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित यह मंदिर जगत मंदिर के नाम से सुप्रसिद्ध है, जिसका सर्वप्रथम निर्माण भगवान श्रीकृष्ण जी के प्रपौत्र वज्रनाभ ने करवाया था। द्वारका आने वाले पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण द्वारकाधीश मंदिर (जगत मंदिर) माना जाता है कि इसकी स्थापना 2500 साल पहले भगवान कृष्ण के पोते वज्रनाभ ने की थी। द्वारकाधीश मंदिर भारतीय उपमहाद्वीप पर स्थित भगवान विष्णु के 108 दिव्य मंदिरों में से एक है, जिसका उल्लेख विभिन्न पौराणिक ग्रंथों एवं काव्यों-महाकाव्यों में किया गया है।
प्राचीन मंदिर का कई बार जीर्णोद्धार किया गया है, 5 तल एवं 72 स्तंभों वाले इस मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण 16वीं शताब्दी में किया गया. मंदिर का शिखर 78.3 मीटर ऊंचा है और शिखर पर 84 फुट लम्बी धर्म ध्वजा स्थापित रहती है। प्रभावशाली 43 मीटर ऊंचे शिखर के शीर्ष पर 52 गज कपड़े से बना एक झंडा है जो मंदिर के पीछे अरब सागर से आने वाली हल्की हवा में लहराता है। मंदिर एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित है, जहां तक पहुंचने के लिए 50 से अधिक सीढ़ियां हैं, इसकी भारी मूर्तिकला वाली दीवारें गर्भगृह को मुख्य कृष्ण मूर्ति से जोड़ती हैं। परिसर के चारों ओर अन्य छोटे मंदिर स्थित हैं। दीवारों पर पौराणिक पात्रों और किंवदंतियों को बारीकी से उकेरा गया है। मंदिर में प्रवेश और निकास के लिए दो दरवाजे (स्वर्ग और मोक्ष) हैं। मंदिर के आधार पर सुदामा सेतु नामक पुल (सुबह 7 बजे से दोपहर 1 बजे तक, शाम 4-7.30 बजे) व्यक्ति को गोमती नदी के पार समुद्र तट की ओर ले जाता है।
संक्षिप्त इतिहास: काठियावाड़ प्रायद्वीप के पश्चिमी सिरे पर स्थित द्वारका को भारत के सबसे पवित्र स्थलों – चार धामों, जिनमें बद्रीनाथ, पुरी और रामेश्वरम शामिल हैं – के साथ जोड़ा गया है। ऐसा माना जाता है कि भगवान कृष्ण इस शहर का निर्माण करने के लिए उत्तर प्रदेश के ब्रज से यहां पहुंचे थे। मंदिर की स्थापना उनके पोते ने की थी। यह गोमती नदी और अरब सागर के मुहाने पर है, जो आध्यात्मिक स्थल को एक सुंदर पृष्ठभूमि प्रदान करता है। ऐसा कहा जाता है कि द्वारका छह बार समुद्र में डूबी थी और अब जो हम देखते हैं वह उसका सातवां अवतार है। इस मंदिर की अपने आप में एक दिलचस्प कथा है। मूल संरचना को 1472 में महमूद बेगड़ा ने नष्ट कर दिया था, और बाद में 15वीं-16वीं शताब्दी में इसका पुनर्निर्माण किया गया। इसे 8वीं सदी के हिंदू धर्मशास्त्री और दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने भी सम्मानित किया था।