
गौरा देवी आम पहाड़ की महिलाओं की तरह सीधी सादी थी। पहाड़ में जीवन गुजर बसर करने के लिए पेड़ पौधों पर निर्भर रहते हैं। पर्यावरण कार्यकत्ताओं की तरह वह न तो ज्यादा पढ़ी लिखी थी न ही पर्यावरण की परिभाषा से वाकिफ दी। सबसे अहम् बात यह है कि उनको पेड़-पौधों की अहमियत मालूम थी यह बात उन्हें भली भांति पता थी कि पेड़ पौधों की उनके जीवन में क्या महत्व हैं। गौरा देवी का जन्म 1925 में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके गांव का नाम लता था और यह गांव नीति घाटी में पड़ता था। बचपन से ही उन्हें अपने पारम्परिक ऊन के व्यवसाय के बारे में बताया गया था। उस समय के अनुसार, कम उम्र में ही उनकी शादी हो गयी थी और 22 साल की उम्र में वह विधवा हो गयी थी। उसने अपने दो साल के बेटे चंद्र सिंह का लालन पालन अकेले ही किया। अपने पारम्परिक उन व्यापार के साथ-साथ गौरादेवी गांव स्तर पर सामुदायिक कार्यो में सक्रिय हिस्सा लेती थी, उनकी लगन को देखकर कुछ समय में ही उन्हें महिला मंगल दल का अध्यक्ष चुन लिया गया । गांव को स्वच्छता एवं सामुहिक वनों की सुरक्षा का उत्ररदायित्व उन्हें सोंप दिया गया।
वन गोरा देवी के लिए देवता स्वरुप थे और उनकी देखभाल करना वह अपना परम कर्तव्य समझती थी। जब सरकार ने नीति घाटी में वनों के कटान का आदेश दिया और ठेकेदार लोग वनों को काटने के लिए आये। तो गौरा देवी ने रैनी गांव की महिलाओं के साथ इसका विरोध किया। 26 मार्च 1974 का वह दिन था जब रैनी गांव के सभी पुरुष चमोली गये थे। ठेकेदार लोग पेड़ो को काटने के लिए आये वन अधिकारी भी उनके साथ थे। यह खबर जैसे ही गौरा देवी तक पँहुची तो वह रेनी गांव को सत्ताइस महिलाओं एव लड़कियों को लेकर वन बचाने चली ये महिलायें पेड़ो से चिपक गयी और वन अधिकारियों एवं ठेकेदारों को चुनौती दी कि पेड़ो के साथ उन्हें भी काटो। महिलाओं की हिम्मत देखकर वन अधिकारी ठेकेदारों सहित वापस लौट गयी। इस प्रकार उस दिन इन महिलाओं ने 2500 पेड़ो को बचाया और इस प्रकार चिपको आंदोलन का उदय हुआ। उस दिन गौरा देवी ने अदम्य साहस का परिचय दिया। शुरुआत में उन्होंने वह अधिकारियों से तर्क किये परन्तु अधिकारियों ने उनकी एक नही सुनी उलटे गौरा देवी एवं उनकी सहेलियों को गाली देने लगा यहाँ तक कि बंदूक से भी इन महिलाओं को डराया धमकाया गया। अधिकारी उन महिलाओं को दृढ़ संकल्प से अनजान थे। महिलाओं ने पेड़ों को गले से लगा लिया और जाने से मना कर दिया। गौरा देवी और उनके सहयोगियों ने अपनी जान जोखिम में डालकर वन अधिकारियों ने लौटने का फैसला किया। महिलायें रातभर जंगल में ही रही और पहरा देती रही। यह गतिरोध चार दिन तक चलता रहा। आखिरकारी वहां से चले गये। इसके बाद राज्य सरकार ने ग्रामीणों की मांग को मानते हुए सभी व्यावसायिक वनों की कटाई पर 10 साल का प्रतिबंध लागू किया। दरअसल इसी दिन चिपको आंदोलन उदय हुआ परन्तु गौरा देवी का नाम गुमनाम अंधेरे में लुप्त हो गया जबकि वह इसके बाद भी वनों की कटाई के विरोध में लोगों को लामबंद करती रही और रैलियाँ आयोजित करती रही गौरा देवी को वह सम्मान नही मिला, जिसकी वह हकदार थी, अनपढ़ होने कारण, नीति निर्माताओं ने कभी भी वनों के संरक्षण पर उनके विचार जानने की कोशिश नहीं की नाही किसी बैठक आदि में उन्हें आमंत्रित किया गया। अपनी जान दॉव पर लगाकर वनों को बचाने के लिए गौरा देवी नवनीय हैं और हम उन्हें सलाम करते हैं। यह एक सत्य है कि गौरा देवी के अदम्य साहस एवं पेड़ों के प्रति उनके लगाव की वजह से चिपको आंदोलन का जन्म हुआ, हम उन्हें नमन करते है।